Sunday, March 16, 2025
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जेल और कैदियों के मुद्दों को गंभीरता से लेने की जरुरत – अतुल मलिकराम (राजनीतिक रणनीतिकार)……

जेल और कैदियों के मुद्दों को गंभीरता से लेने की जरुरत – अतुल मलिकराम (राजनीतिक रणनीतिकार)………

अपराधियों के लिए जेल को सुधारगृह के नाम से जाना जाता है. लेकिन शायद ये सुधारगृह समय के साथ आरामगृह में तब्दील हो गए हैं, जहाँ दोषियों से अधिक ऐसे कैदी बंद हैं, जिनका दोष अभी साबित ही नहीं हुआ है. जिन्हे आसान भाषा में विचाराधीन कैदी कहा जाता है. ये कैदी कई-कई सालों तक जेलों में कैद रहते हैं. जिससे न सिर्फ एडमिनिस्ट्रेशन पर लोड बढ़ता है, बल्कि जेलों के बजट पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है, जो सीधे तौर पर सरकारी खजाने पर असर डालता है. 2022 में प्रकाशित इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के आंकड़ों पर नजर डालें तो देश की जेलों में सिर्फ 22 फीसदी कैदी ही ऐसे हैं, जिन्हे किसी अपराध के लिए दोषी करार दिया गया है. जबकि 77 फीसदी कैदी अंडरट्रायल कैदियों की श्रेणी में आते हैं. जिनके ऊपर अलग-अलग अदालतों में केस चल रहा है.

आंकड़ों के आधार पर बात करें तो विचाराधीन कैदियों की संख्या 2010 में जहां 2.4 लाख थी, वो 2021 आते-आते करीब दोगुनी होकर 4.3 लाख हो गई. इसमें 78% बढ़ोतरी हुई है. जाहिर तौर पर विचाराधीन कैदियों को लंबे समय तक हिरासत में रखा जाता है और उनका केस कई सालों तक खिचता रहता है. आंकड़ों पर गौर करें तो समझ आता है कि समय के साथ कैदियों को जेलों में भरने का सिलसिला तेजी से बढ़ा है. हालाँकि इस दौरान विचाराधीन कैदियों को एक साल के भीतर ही जमानत पर रिहा करने का रिकॉर्ड भी है. वहीं कई कैदियों को ट्रायल पूरा होने पर दोषी भी करार दिया गया है.

इसके अतिरिक्त क्षमता से अधिक कैदियों को रखा जाना भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. दैनिक भास्कर अख़बार में छपी एक खबर के अनुसार क्षमता से अधिक कैदियों के मामले में बिहार में इसका आंकड़ा 2020 में 113% था, जो 2021 में बढ़कर 140% हो गया जबकि उत्तराखंड में ये आंकड़ा 185% था. राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो देश की लगभग 30 फीसदी जेल ऐसी हैं जहां ऑक्यूपेंसी रेट 150 फासदी या उससे अधिक है. वहीं 54% जेल ऐसी हैं, जहां 100% ऑक्यूपेंसी रेट है.

यह रिपोर्ट जेल कर्मचारियों के मुद्दे पर भी ध्यान आकर्षित करती है. रिपोर्ट के अनुसार 2021 में देश की जेलों में 1,391 मान्य पदों के मुकाबले केवल 886 ही कर्मचारी थे. जेल के लिए स्टाफिंग मानदंड के अनुसार, 200 कैदियों के लिए एक सुधारक और 500 कैदियों के लिए एक मनोवैज्ञानिक अधिकारी होना चाहिए. लेकिन तमिलनाडु और चंडीगढ़ के अलावा कोई भी अन्य राज्य या केंद्र शासित प्रदेश 200 कैदियों पर एक जेल अधिकारी के मानक को पूरा नहीं करता है. वहीं कर्नाटक एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां कुल जेल कर्मचारियों में महिलाओं की संख्या 32% है. मेरा मानना है कि जिम्मेदार प्रशासन और केंद्र व राज्य सरकारों को यह विषय और मुद्दे गंभीरता से लेने चाहिए. ताकि विचाराधीन कैदियों की संख्या को कम कर, क्षमता से अधिक कैदियों के बोझ को जेलों से कम किया जा सके. इसके अतिरिक्त नई जेलों के निर्माण पर भी सरकार को ध्यान देना चाहिए. जिससे जेलों को एक आदर्श सुधार गृह का रूप दिया जा सके. और कैदियों को एक नया व सकारात्मक जीवन जीने की प्रेरणा मिल सके.

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