Thursday, August 14, 2025
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भोपाल एम्स की चेतावनी: सेल्फ-ट्रीटमेंट से 60% मरीजों पर एंटीबायोटिक असरहीन

भोपाल 

आपने भी शायद महसूस किया होगा कि पहले जो बुखार या संक्रमण दो गोली में ठीक हो जाता था, अब वही ठीक होने में हफ्तों लग जाते हैं. डॉक्टर भी दवा बदलते रहते हैं और फिर भी शरीर पर असर कम दिखता है. ऐसा क्यों हो रहा है? क्या एंटीबायोटिक दवाओं का असर बंद हो गया है?

एम्स भोपाल की एक ताजा रिपोर्ट ने इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की है. जनवरी 2025 से जून 2025 के बीच एम्स भोपाल में आए मरीजों के इलाज और दवाओं के असर पर एक रिसर्च की गई. इस रिपोर्ट ने मेडिकल साइंस की दुनिया में चिंता बढ़ा दी है. चिंता इस बात की अब एंटीबायोटिक दवाओं का असर उस लेवल पर नहीं हो रहा है. ऐसा क्यों हो रहा है? इसके पीछे की वजहें क्या है?

रिपोर्ट के मुताबिक, कई आम एंटीबायोटिक दवाएं अब शरीर पर असर नहीं कर रही हैं. खासकर सिप्रोफ्लॉक्सासिन जैसी दवा जो पहले यूरिन इन्फेक्शन (UTI) में खूब दी जाती थी. अब यही दवा ई.कोलाई बैक्टीरिया पर सिर्फ 39% असर दिखा रही है. इसका मतलब ये हुआ कि हर 10 मरीजों में से करीब 6 पर यह दवा बिल्कुल काम नहीं करती.

दवाएं कमजोर हो गई हैं या फिर शरीर में कुछ गड़बड़ है?

अपको बता दें कि इसी तरह की एक और दवा है मेरोपेनेम, इसका भी असर अब कम होता दिख रहा है. केलबसीएला न्यूमोनिया नाम के बैक्टीरिया के लिए मेरोपेनेम नामक दवा दी जाती थी. लेकिन अब सिर्फ 52 प्रतिशत मामलों में ही ये दवा काम कर रही है. जानकारी के लिए बता दें कि केलबसीएला न्यूमोनिया नामक बैक्टीरिया फेफ़ड़ों और खून के इंफेक्शन का बड़ा कारण होता है. जो दवाएं कभी “strong antibiotics” मानी जाती थीं, अब हर किसी पर असर नहीं करतीं.

strong antibiotics अब नहीं रहीं असरदार

रिपोर्ट में ये भी पाया गया है कि नाइट्रोफ्यूरेंटॉइन और फॉस्फोमाइसिन जैसी दवाएं अब भी यूरिन इन्फेक्शन में काम कर रही हैं. इसके अलावा, अस्पतालों में दी जाने वाली एमिकासिन दवा गहन चिकित्सा (ICU) में प्सीयूडोमोनास जैसे खतरनाक संक्रमण पर अच्छी तरह से काम कर रही है. यानी दवाएं खत्म नहीं हुईं हैं बस कुछ दवाओं के प्रति बैक्टीरिया ने प्रतिरोध (resistance) बना लिया है.

एंटीबायोटिक दवाओं का गलत और जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल

डॉ. पंकज शुक्ला, जो 2018 में मध्य प्रदेश स्वास्थ्य विभाग के निदेशक रहे हैं, उन्होंने बताया कि इसका सबसे बड़ा कारण है – एंटीबायोटिक दवाओं का गलत और जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल. उन्होंने कहा कि जब भी हमें बुखार या खांसी होती है हम तुरंत मेडिकल स्टोर से दवा ले लेते हैं वो भी बिना डॉक्टर से पूछे. कभी पूरी दवा का कोर्स नहीं करते. कभी वायरल में भी एंटीबायोटिक ले लेते हैं. यही आदतें धीरे-धीरे बैक्टीरिया को मजबूत बना रही है.

वायरल बुखार में एंटीबायोटिक जरूरी नहीं

    वायरल बुखार, खांसी के 90% और दस्त के 75% मामलों में एंटीबायोटिक की जरूरत नहीं होती। लेकिन, लोग बिना डॉक्टर की सलाह दवा ले लेते हैं।
    तीन दिन में ज्यादातर वायरल अपने आप ठीक हो जाते हैं। कोई भी एंटीबायोटिक देने से पहले कल्चर और सेंसिटिविटी टेस्ट जरूरी है। इससे पता चलता है कि कौन-सी दवा कारगर रहेगी।
    फामासिस्ट शेड‌्यूल एच-1 एंटीबायोटिक बिना पर्चे के नहीं दें। एक व्यक्ति के पर्चे की दवा दूसरे को नहीं दें। हर जिला अस्पताल में माइक्रोबायोलॉजिस्ट नियुक्त करें।

उन्होंने 2021-22 में ICMR, NHM और एम्स भोपाल द्वारा की गई एक स्टडी का ज़िक्र भी किया, जिसमें पाया गया कि देश के 10 बड़े अस्पतालों में एंटीबायोटिक बिना जरूरत के दी जा रही थीं. यानी माइक्रोबायोलॉजी जांच के बिना ही डॉक्टर दवा दे रहे थे, जो सही नहीं है.

समाधान क्या है?

डॉ. शुक्ला के मुताबिक हर वायरल बुखार में एंटीबायोटिक की जरूरत नहीं होती. तीन दिन में ज़्यादातर वायरल अपने आप ठीक हो जाते हैं. उन्होंने सलाह दी कि कोई भी एंटीबायोटिक देने से पहले कल्चर और सेंसिटिविटी टेस्ट जरूर करवाना चाहिए. इससे पता चलता है कि कौन-सी दवा किस बैक्टीरिया पर असर करेगी.

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